नमस्कार दोस्तो, Dr Ambedkar ka kala sach सीरीज का दूसरा लेख अंबेडकर के बचपन में सकपाल से अंबेडकर बनने की पूरी सच्चाई के साथ आप सबके समक्ष प्रस्तुत कर रहा हूं। दादा मालोजी जी सकपाल , पिता रामजी सकपाल तो भीमराव सकपाल न होकर अंबेडकर कैसे बने? और घर की धार्मिक पृष्ठभूमि कैसी रही ?आइए जानते है पूरी सच्चाई को।
भीमराव "सकपाल" से कैसे बने "अंबेडकर" ।
कहते है की भीमराव के पिता रामजी सकपाल ने स्कूल में दाखिला करवाते समय उनके सरनेम सकपाल की जगह उनके गांव अंबाडावे के नाम पर आंबडवेकर उपनाम लिखवाया था। बचपन में हर कोई बच्चा किसी न किसी विशेष प्रतिभा के कारण किसी न किसी शिक्षक के स्नेह का पात्र रहता ही है। कहते है की स्कूल के दिनों में कृष्णा महादेव अंबेडकर को जाति से ब्राह्मण थे, भीमराव से उनका अच्छा लगाव हो गया था। आंबडवेकर उपनाम बोलने में महादेव को थोड़ा अटपटा लगता था तो स्नेह के कारण उन्होंने भीमराव का उपनाम अपने नाम पर अंबेडकर कर दिया था।
अंबेडकर व उनके परिवार की धार्मिक पृष्ठभूमि
डॉ अंबेडकर का जन्म अंग्रेजी मुलाजिमों के परिवार में हुआ था उनके हवलदार दादाजी के बाद उनके पिताजी भी अंग्रेजी सेना सूबेदार मेजर के पद से सेवानिवृत हुवे थे। तो रसूख और मौज की जिंदगी उनको विरासत में मिली थी बचपन से ही कोट पेंट पहनने के शौकीन अंबेडकर की वर्तमान में सभी फोटो रसूख वाली देखने को मिलेंगी। हालांकि अंग्रेजी पहनावे और रसूख के बावजूद भी उनका परिवार काफी धार्मिक था। दादाजी मालोजी ने रामानंद संप्रदाय से दीक्षित थे और पिताजी ने बाद में कबीरपंथ की दीक्षा ली। उनके घर में कई लोग सन्यासी भी हुवे। रामजी सकपाल के बड़े भाई और अंबेडकर के सगे ताऊ गृहस्थ त्याग गोसाईं बन गए थे।
उनके घर में रामायण, पांडव प्रताप, ज्ञानेश्वरी और संत समागम होते रहते थे। इन सबका जिक्र अंबेडकर के करीबी और उनकी जीवनी लिखने वाले 2 लेखक धनंजय कीर व चांगदेव भवानराव खैरमोडे ने लिखा है जो सबसे प्रामाणिक जीवनी मानी जाती है।
धनंजय कीर के अनुसार संत तुकाराम और मुक्तेश्वर की रचनाएं अंबेडकर को कंठस्थ थी। कहते है धार्मिक मामले में रामजी सकपाल नियम के बड़े पक्के थे। शाम 8 बजे उनके बाकी भाई और बहन नित्य देवघर जाया करते थे। और स्वयं भी रामजी सकपाल शाम को पूजा अर्चना के समय गीता का के श्लोकों का उच्चारण किया करते थे। शाम के समय पूजा अर्चना में किसी की भी अनुपस्थिति स्वीकार्य नहीं थी। घर के धार्मिक संस्कारों की छाप बहुत गहरी थी। 14 अक्तूबर 1956 को अपने अनुयायियों के साथ नागपुर में बौद्ध धर्म अपनाते समय अंबेडकर कहते है की धर्म मनुष्य के कल्याण के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण तत्व है।
गरीब बड़ा आशावान है धर्म आशा को जगाता है गरीब को धर्म की नितांत आवश्यकता है। धर्म आशावादी बनाता है गरीबी में ढांढस बंधाता है । अंबेडकर अपने लेख में और भाषणों में संतो की वाणी का उपयोग किया करते थे। बुद्ध धर्म का उनका जीवन मात्र 56 दिन का था। 56 दिनों के जीवन में उनको अहसास हुआ कि कोई ना कोई अदृश्य शक्ति तो है तो मनुष्य के जीवन को नियंत्रित करके रखती है। इसका उल्लेख धनंजय कीर ने उनकी जीवनी में किया है: एक बार उनकी गाड़ी नदी में पलटी और एक बड़े से पत्थर के आधार पर टिक गई , उन्होंने अदृश्य शक्ति की प्रार्थना की और घर आकर पुत्र को गले लगाकर फूट फूट कर रोने लगे और बोले की ईश्वर की कृपा से मेरी जान बची। ईश्वर में विश्वास के उपर उनका मानना था की जिन लोगो में ईश्वर पर विश्वास नहीं होता मैं उन पर विश्वास नहीं करता।
यह भी पढ़े: Dr Ambedkar ka kala sach-3: अम्बेडकर की प्रारंभिक और उच्च शिक्षा
काले सच।
- अंबेडकर के दादा मालोजी अंग्रेजी हुकूमत में हवलदार थे और पिता सूबेदार मेजर जिनकी सेवानिवृति के पश्चात भी 1893 में 50 रुपया पेंशन थी, तो बचपन से वो गरीब थे या उनका परिवार आर्थिक बदहाली में था ये कोरी बकवास है । उनके कपड़ों से कोई भी बाकी गरीब और उनके बीच की आर्थिक स्थिति का अंदाजा लगा सकता है।
- 1956 तक गाड़ी, बंगला, मंत्री पद, बड़े ओहदे सब कुछ मिल चुका था। मिला नही था तो चुनाव लड़कर कोई लोकसभा में जीत जिसके कारण एक राजनीतिक पृष्ठभूमि तैयार करने हेतु हिंदू धर्म का सार्वजनिक त्याग करके बुद्धिस्म को फॉलो करना।
- धार्मिक संस्कारों और सन्यासियो (ताऊ) के परिवार से आने वाले अंबेडकर पूरा जीवन हिंदू रहे और मात्र 56 दिन के लिए बुद्धिष्ट बने।
0 टिप्पणियाँ